शौर्य तेज बल-बुद्घि धाम की॥
रेणुकासुत जमदग्नि के नंदन।
कौशलेश पूजित भृगु चंदन॥
अज अनंत प्रभु पूर्णकाम की।
आरती कीजे श्री परशुराम की॥1॥
नारायण अवतार सुहावन।
प्रगट भए महि भार उतारन॥
क्रोध कुंज भव भय विराम की।
आरती कीजे श्री परशुराम की॥2॥
परशु चाप शर कर में राजे।
ब्रम्हसूत्र गल माल विराजे॥
मंगलमय शुभ छबि ललाम की।
आरती कीजे श्री परशुराम की॥3॥
जननी प्रिय पितु आज्ञाकारी।
दुष्ट दलन संतन हितकारी॥
ज्ञान पुंज जग कृत प्रणाम की।
आरती कीजे श्री परशुराम की॥4॥
परशुराम वल्लभ यश गावे।
श्रद्घायुत प्रभु पद शिर नावे॥
छहहिं चरण रति अष्ट याम की।
आरती कीजे श्री परशुराम की॥5॥
parshuram ji ki aarti
shri parshuram chalisa भगवान परशुराम चालीसा
॥ दोहा ॥
श्रीशिव गुरु स्वामी माहेश्वर मज तु उद्धारी ।
उमा सहीत दायकु आर्शिवाद मज तु तारी ॥
बुद्धिदेवता तव जानिके दिये परशु तुमार ।
तव बल जानिये दुनिया सारी दुष्टि करे हहाकार ॥
॥ चौपाई ॥
जय परशुराम बलवान दुनिया सार।
जय रामभद्र कहे लोक करे जागर॥१॥
शिव शिष्य भार्गव तव नामा ।
रेणुका पुत्र जमतग्निसुत लामा ॥२॥
शुरविर नारायण तव अंगी ।
छटा अवतार सुहीत के संगी ॥३॥
परशु तव हस्ता दिसे सुवेसा ।
ऋषि मुद्रिका तव मन श्रेसा ॥४॥
हाथ शिवधनुष्य भार्गवा साजै ।
विप्र कुल कांधे जनेउ साजै ॥५॥
विष्णु अंश ब्रह्मकुलनंदन ।
तव गाथा पढे करे जग वंदन ॥६॥
वेद ही जानत असे चतुर ।
शिवजी के शिष्य बलशाली भगुर ॥७॥
पृथ्वि करे निक्षेत्र एक्कीस समया ।
विप्र रक्षोनी दुष्टास मारीया ॥८॥
भार्गव अवतारी तव गुन गावा ।
कर्म स्वरुपे तव चिरंजीवी पावा ॥९॥
सहस्राजुना तव तु संहारे ।
पिता वचन दिये तव तु पारे ॥१०॥
पीता होत तव अज्ञाये ।
माता शिरछेद कर तु जाये ॥११॥
जमदग्नी कहे मम पुत्र प्रियई ।
तुम जो चांहे आर्शिवाद मांगई ॥१२॥
भद्र कहते मम माता ही जगावैं ।
भ्राता सहीत मम सामोरी लावैं ॥१३॥
तव मुखमंडल दिसे ऋषिसा ।
घोर तपस्वि पठन संहीता ॥१४॥
मुद्रा गिने कुबेर ही थक जांते ।
तव धन कबि गिन ना पांते ॥१५॥
तुम उपकार ब्रह्मकुले कीह्ना ।
ब्रह्म मिलाय राज पद दीह्ना ॥१६॥
तुह्मरो शक्ती सब जग जाना ।
राक्षस कांपे तुमये भय माना ॥१७॥
तुम चिरंजीव असे जग जानु ।
जो करे तव भक्ती मधुर फल भानु ॥१८॥
बुद्धिदाता परशु हथ तुज देई ।
शिव धनुष्य माहेश्वर मिलमेेई ॥१९॥
दुष्ट संहार कर त्रिलोक जिते ।
ब्रह्मकुल के तुम भाग्यविधाते ॥२०॥
ऋषि मुनि के तुम रखवारे ।
शिव आज्ञा होत दुहीत को संहवारे ॥२१॥
सब जग आंये तुह्मरी शरना ।
तुम रच्छक काहू को डर ना ॥२२॥
परशु चमक रवि ही छुंपै ।
भार्गव नाम सुनत दुष्ट थर कांपै ॥२३॥
रेणुका पुत्र नाम जब आंवै ।
तब तव गान सहस्र जुग गांवै ॥२४॥
परशुराम नाम सुरा ।
जपत रहो ब्रह्मविरा ॥२५॥
संकट पडे तो भद्र बचांवै ।
मन से ध्यान भार्गव जो लांवै ॥२६॥
जगत के तुम तपस्वी राजा ।
ब्रह्मकुल जन्मे उपकार मज वर कीजा ॥२७॥
इच्छा धरीत तुज भक्ती जो कीवै ।
इच्छित जो तिज फल पावै ॥२८॥
भार्गव नाम सुनित होय उजियारा ।
आज्ञा पालत तव जग दिवाकरा ॥२९॥
राम सह धनुर युद्ध पुकारे ।
अवतार सप्तम समज दुवारे ॥३०॥
युद्ध कौशल्य वेदो जानता ।
कौतुक देखे रेणुका माता ॥३१॥
चारो जुग तुज कीर्तीमासा ।
सदा रहो ब्रह्मकुल के रासा ॥३२॥
तेहतीस कोट देव तुज गुन गावै ।
भार्गव नाम लेत सब दुख बिसरावै ॥३३॥
तुज नाम महीमा लागे माई ।
जनम जनम करे पुण्य कमाई ॥३४॥
म्हारे चित्त तुज दुज ना जाई ।
सारे सेई सब सुख मज पाई ॥३५॥
परशुराम नाम सुने भागे पीरा ।
भद्र नाम सुनत उठे ब्रह्मविरा ॥३६॥
जय परशुराम कहें मज विप्राईं ।
तुज कृपा करहु भार्गव नाईं ॥३७॥
पठे जो यह शत बार कोई ।
भार्गव कृपा उस सदैव होई ॥३८॥
पढित यह परशुराम चालीसा ।
सुख शांती नांदे रहे विष्णुदासा ॥३९॥
वसंतसुत पुरुषोत्तम रज असै तैरा।
तुज भक्ती मोही जुग जग सारा ॥४०॥
॥ दोहा ॥
रेणुका नंदन नारायण अंश ब्रह्मकुल रुप ।
परशुराम भार्गव रामभद्र ह्रदयी बसये भुप ॥
परशुराम जी स्तोत्र भगवान Parshuram Stotram
कराभ्यां परशुं चापं दधानं रेणुकात्मजं ।
नमामि भार्गवं रामं रेणुका चित्तनन्दनं ।
मोचितंबार्तिमुत्पातनाशनं क्षत्रनाशनम् ॥२॥
भयार्तस्वजनत्राणतत्परं धर्मतत्परम् ।
गतगर्वप्रियं शूरं जमदग्निसुतं मतम् ॥३॥
वशीकृतमहादेवं दृप्त भूप कुलान्तकम् ।
तेजस्विनं कार्तवीर्यनाशनं भवनाशनम् ॥४॥
परशुं दक्षिणे हस्ते वामे च दधतं धनुः ।
रम्यं भृगुकुलोत्तंसं घनश्यामं मनोहरम् ॥५॥
शुद्धं बुद्धं महाप्रज्ञापण्डितं रणपण्डितं ।
रामं श्रीदत्तकरुणाभाजनं विप्ररंजनम् ॥६॥
मार्गणाशोषिताभ्ध्यंशं पावनं चिरजीवनम् ।
य एतानि जपेन्द्रामनामानि स कृति भवेत् ॥७॥
॥ इति श्री प. श्री वासुदेवानंदसरस्वतीविरचितं श्री परशुराम स्तोत्रं संपूर्णम् ॥
परशुराम त्रेता युग (रामायण काल) में एक ब्राह्मण ऋषि के यहां जन्मे थे। उन्हें विष्णु का छठा अवतार भी कहा जाता है। पौरोणिक वृत्तान्तों के अनुसार उनका जन्म महर्षि भृगु के पुत्र महर्षि जमदग्नि द्वारा सम्पन्न पुत्रेष्टि यज्ञ से प्रसन्न देवराज इन्द्र के वरदान स्वरूप पत्नी रेणुका के गर्भ से वैशाख शुक्ल तृतीया को मध्यप्रदेश के इंदौर जिला में ग्राम मानपुर के जानापाव पर्वत में हुआ था। वे भगवान विष्णु के आवेशावतार थे। पितामह भृगु द्वारा सम्पन्न नामकरण संस्कार के अनन्तर राम कहलाए। वे जमदग्नि का पुत्र होने के कारण जामदग्न्य और शिवजी द्वारा प्रदत्त परशु धारण किये रहने के कारण वे परशुराम कहलाये। आरम्भिक शिक्षा महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचीक के आश्रम में प्राप्त होने के साथ ही महर्षि ऋचीक से शार्ङ्ग नामक दिव्य वैष्णव धनुष और ब्रह्मर्षि कश्यप से विधिवत अविनाशी वैष्णव मन्त्र प्राप्त हुआ। तदनन्तर कैलाश गिरिश्रृंग पर स्थित भगवान शंकर के आश्रम में विद्या प्राप्त कर विशिष्ट दिव्यास्त्र विद्युदभि नामक परशु प्राप्त किया। शिवजी से उन्हें श्रीकृष्ण का त्रैलोक्य विजय कवच, स्तवराज स्तोत्र एवं मन्त्र कल्पतरु भी प्राप्त हुए। चक्रतीर्थ में किये कठिन तप से प्रसन्न हो भगवान विष्णु ने उन्हें त्रेता में रामावतार होने पर तेजोहरण के उपरान्त कल्पान्त पर्यन्त तपस्यारत भूलोक पर रहने का वर दिया।
वे शस्त्रविद्या के महान गुरु थे। उन्होंने भीष्म, द्रोण व कर्ण को शस्त्रविद्या प्रदान की थी। उन्होंने एकादश छन्दयुक्त "शिव पंचत्वारिंशनाम स्तोत्र" भी लिखा। इच्छित फल-प्रदाता परशुराम गायत्री है-"ॐ जामदग्न्याय विद्महे महावीराय धीमहि, तन्नोपरशुराम: प्रचोदयात्।" वे पुरुषों के लिये आजीवन एक पत्नीव्रत के पक्षधर थे। उन्होंने अत्रि की पत्नी अनसूया, अगस्त्य की पत्नी लोपामुद्रा व अपने प्रिय शिष्य अकृतवण के सहयोग से विराट नारी-जागृति-अभियान का संचालन भी किया था। अवशेष कार्यो में कल्कि अवतार होने पर उनका गुरुपद ग्रहण कर उन्हें शस्त्रविद्या प्रदान करना भी बताया गया है।
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